हिंदी के समक्ष समस्याएं और समाधान
सकल सृष्टि के भाषा का विकास दैनंदिन जीवन में और दैनन्दिन जीवन से होता है। भाषा के विकास में आमजन की भूमिका सर्वाधिक है। शासन और प्रशासन की भूमिका अत्यल्प और अपने हित तक सिमित होती है। भारत में तथाकथित लोकतंत्र की आड़ में हस्तक्षेपकारी प्रशासन तंत्र दिन-ब-दिन मजबूत हो रहा है जिसका कारण राजनीतिक स्वार्थ तथा बढाती असहिष्णुता है। राजनीति जब समाज पर हावी हो जाती है तो सहयोग, सदभाव, सहकार और सर्व स्वीकार्यता के लिए स्थान नहीं रह जाता। दुर्भाग्य से भाषिक परिवेश में यही वातावरण है। हर भाषा-भाषी अपनी सुविधा के अनुसार देश की भाषा नीति चाहता है। यहाँ तक कि परंपरा, प्रासंगिकता, भावी आवश्यकता या भषा विकास की संभावना के निष्पक्ष आकलन को भी स्वीकार्यता नहीं है।
निरर्थक प्रतिद्वंदिता :
संविधान की ८ वीं अनुसूची में सम्मिलित होने की दिशाहीन होड़ जब-तब जहाँ-तहाँ आंदोलन का रूप लेकर लाखों लोगों के बहुमूल्य समय, ऊर्जा तथा राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश का कारण बनता है। ८ वीं अनुसूची में जो भाषाएँ सम्मिलित हैं सूचि में नहीं हैं उनका कितना विकास अवरुद्ध हुआ इस का आकलन किये बिना यह होड़ स्थानीय नेताओं तथा साहित्यकारों द्वारा निरंतर विस्तारित की जाती हैं। विडंबना यह है कि शराजस्थानिश् नाम की किसी भी भाषा का अस्तित्व न होते हुए भी उसे राज्य की अधिकृत भाषा घोषित कर दिया जाता है और उसी राज्य में प्रचलित ५० से अधिक भाषाओँ के समर्थक पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के कारण यह होता देखते हैं।
राष्ट्र भाषा और राज भाषा :
राज-काज चलाने के लिए जिस भाषा को अधिसंख्यक लोग समझते हैं उसे राज भाषा होना चाहिए किंतु विदेशी शासकों ने खुद कि भाषा को गुलाम देश की जनता पर थोप दिया। उर्दू और अंग्रेजी इसी तरह थोपी और बाद में प्रचलित रह गयीं भाषाएँ हैं। शासकों की भाषा से जुड़ने की मानसिकता और इनका उपयोग कर खुद को शासक समझने की भ्रामक धारणा ने इनके प्रति आकर्षण को बनाये रखा है। देश का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजीप्रेमी प्रशासक और भारतीय अंग्रेज प्रधान मंत्री के कारण अंग्रेजी को महत्व बना रहा तथा राजनैतिक टकराव में भाषा को घसीट कर हिंदी को विवादस्पद बना दिया गया। किसी देश में जितनी भी भाषाएँ जन सामान्य द्वारा उपयोग की जाती हैं, उनमे से कोई भी अराष्ट्र भाषा नहीं है अर्थात वे सभी राष्ट्र भाषा हैं और अपने-अपने अंचल में बोली जा रही हैं, बोली जाती रहेंगी।
निरर्थक विवाद की जड़ मिटाने के लिए सभी भाषाओँ/बोलियों को राष्ट्र भाषा घोषित कर अवांछित होड़ को समाप्त किया जा सकता है। इससे अनचाहे हो रहा हिंदी-विरोध अपने आप समाप्त हो जाएगा। ७०० से अधिक भाषाएँ राष्ट्र भाषा हो जाने से सब एक साथ एक स्तर पर आ जाएँगी। हिंदी को इस अनुसूची में रख जाय या निकाल दिया जाए कोई अंतर नहीं पड़ना है। हिंदी विश्व वाणी हो चुकी है। जिस तरह किसी देश का धर्म न होने के बावजूद सनातन धर्म और किसी भी देश की भाषा न होने के बाद बावजूद संस्कृत का अस्तित्व था, है और रहेगा वेस ही हिंदी भी बिना किसी के समर्थन और विरोध के फलती-फूलती रहेगी।
शासन-प्रशासन के हस्तक्षेप से मुक्ति ७०० से अधिक भाषाएँ/बोलियां राष्ट्र भाषा हो जाने पाए पारस्परिक विवाद मिटेगा, कोई सरकार इन सबको नोट आदि पर नहीं छाप सकेगी। इनके विकास पर न कोई खर्च होगा, न किसी अकादमी की जरूरत होगी। जिसे जान सामान्य उपयोग करेगा वही विकसित होगी किंतु राजनीति और प्रशासन की भूमिका नगण्य होगी।
प्रचार नहीं व्यवहार चाहिए :
विडम्बना है कि हिंदी के सर्वाधिक क्षति तथाकथित हिंदी समर्थकों से ही हुई और हो रही है। हिंदी की आड़ में खुद के हिंदी-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं ने हिंदी का कोई भला नहीं किया, खुद का प्रचार कर नाम और नामा बटोर तथा हिंदी-विरोध के अंदोलन को पनपने का अवसर दिया। हिंदी को ऐसी नारेबाजी और भाषणबाजी ने बहुत हानि पहुँचाई है। गत जनवरी में ऐसे ही हिंदी प्रेमी भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और सरकार की प्रशंसा में कसीदे पढ़कर साहित्य और भाषा में फूट डालने का काम कर रहे थे। उसी सरकार की हिंदी विरोधी नीतियों के विरोध में ये बगुला भगत चुप्पी साढ़े बैठे हैं।
मठाधीशों से हिंदी की रक्षा :
हिंदी के नाम पर आत्म प्रचार करने वाले आयोजन न हों तो हिंदी विरोध भी न होगा। जब किसी भाषा/बोली के क्षेत्र में उसको छोड़कर हिंदी की बात की जाएगी तो स्वाभाविक है कि उस भाषा को बोलने वाले हिंदी का विरोध करेंगे। बेहतर है कि हिंदी के पक्षधर उस भाषा को हिंदी का ही स्थानीय रूपु मानकर उसकी वकालत करें ताकि विरोध-भाव समाप्त हो।
हिंदी सम्पर्क भाषा :
किसी भाषा /बोली को उस अंचल के बाहर विकृति न होने से दो विविध भाषाओँ।/बोलियों के लोग पारस्परिक वार्ता में हिंदी का प्रयोग करेंगे ही। तब हिंदी की संपर्क भाषा की भूमिका अपने आप बन जाएगी। आज सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को प्रतिस्पर्धी मानकर उसका विरोध कर रही हैं, तब सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को अपना पूरक मानकर समर्थन करेंगी। उन भाषाओँ/बोलियों में जो शब्द नहीं है, वे हिंदी से लिए जायेंगे, हिंदी में भी उनके कुछ शब्द जुड़ेंगे। इससे सभी भाषाएँ समृद्ध होंगी। हिंदी की सामर्थ्य और रोजगार क्षमता हिंदी के हितैषियों को यदि हिंदी का भला करना है तो नारेबाजी और सम्मेलन बंद कर हिंदी के शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाएं। इसके लिए हर विषय हिंदी में लिखा जाए। ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जाए। हिंदी के माध्यम से वार्तालाप, पत्राचार, शिक्षण आदि के लिए शासन नहीं नागरिकों को आगे आना होगा। अपने बच्चों को अंग्रेजी से पढ़ाने और दूसरों को हिंदी से उपदेश देने का पाखण्ड बन्द करना होगा। हिंदी की रोजगार क्षमता बढ़ेगी तो युवा अपने आप उस और जायेंगे।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और इस बाजार में आम ग्राहक सबसे ज्याद हिंदी ही समझता है। ७०० राष्ट्र भाषाएँ तो दुनिया का कोई देश या व्यपारियों नहीं सीख-सीखा सकता इसलिए विदेशियों के लिए हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा होगी। स्थिति का लाभ लेने के लिए देश में द्विभाषी रोजगार पार्क पाठ्यक्रम हों। हिंदी के साथ कोई एक विदेशी भाषा सीखकर युवजन उस देश में जाकर हिंदी का काम कर सकेंगे। ऐसे पाठ्यक्रम हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के साथ बेरोजगारी कम करेंगे। कोई दूसरी भारतीय भाषा इस स्थिति में नहीं है कि यह लाभ ले और दे सके।
हिंदी में हर विषय की किताबें लिखी जाने की सर्वाधिक जरूरत है। यह कार्य सरकार नहीं हिंदी के जानकारों को करना है। किताबें अंतरजाल पर हों तो इन्हें पढ़ा-समझ जाना सरल होगा। हिंदी में मूल शोध कार्य न हों, केवल नकल करना निरर्थक है। तकनीकी, यांत्रिक, विज्ञानं और अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी पर्याप्त साहित्य की कमी तत्काल दूर की जाना जरुरी है। हिंदी की सरलता या कठिनता के निरर्थक व्यायाम को बंद कर हिंदी की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा। हिंदी की अन्य भारतीय भाषाओँ को गले लगाकर ही आगे बढ़ सकती है, उनका गला दबाकर या गला काटकर हिंदी भी अपने आप समाप्त हो जाएगी। - संजीव वर्मा सलिल
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If there are no self-propagating events in the name of Hindi, then there will be no Hindi protest. When Hindi will be spoken in a language / dialect area except that, then it is natural that those who speak that language will oppose Hindi. It is better that the advocates of Hindi consider that language as the local form of Hindi, so that the opposition ends.
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महर्षि दयानन्द ने महिलाओं की शिक्षा पर सदैव बल दिया तथा बाल विवाह का घोर विरोध किया। प्राचीन आर्ष गुरुकुल प्रणाली और शिक्षा पद्धति का गहन अध्ययन व विश्लेषण करके ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चारों आश्रमों के पालन पर बल दिया। उनका सम्पूर्ण जीवन व कृतित्व आध्यात्मिकता से परिपूर्ण था।...
स्वयं से संवाद स्वयं से स्वयं के संवाद की जब स्थितियां नगण्य होती हैं तो नकारात्मकता देखने को मिलती है और भूलें बार-बार दोहरायी जाती हैं। हमेशा आपके आसपास ऐसे ढेरों लोग होते हैं, जो अपनी नकारात्मकता से आपको भ्रमित या भयभीत कर सकते हैं। ऐसे लोग हर युग में हुए हैं और वर्तमान में भी ऐसे लोगों का वर्चस्व बढ ही रहा है।...