बाहरी त्याग भी जरूरी
रागी पुरुष अर्थात् जिसकी विषय-भोगों में सुख-बुद्धि का पूर्णरूपेण त्याग नहीं हो सकता है उसके मन में वन में भी अनेकों दोष उत्पन्न होते हैं और जो ज्ञानी पुरुष विवेक वैराग्य के बल से, विषय भोगों में, दोष दर्शन व मिथ्यात्व दर्शन द्वारा तुच्छ भाव दृढ निश्चय करके, मन सहित इंद्रियों को वश में करके कर्त्तव्य कर्म प्रवृत्त है वे घर में ही तपस्वी हैं, उनका घर ही तपोवन है क्योंकि वास्तव में त्याग का सम्बन्ध तन से नहीं मन से है परन्तु तन का त्याग भी मन के त्याग में सहायक है। अतः तन से बाह्य त्याग की यथा योग्य करना आवश्यक है। सारांश यह है कि तन को संसार से नहीं निकालना है अपितु मन से संसार को निकालना है क्योंकि तन का संसार में रहना हानिकारक नहीं किंतु मन का संसार में फंसना हानिकारक है।
इसलिए - देहेन्द्रिय से कर्म करो, मन से रहो असंग।
हानि लाभ में सम रहो, यही योग का अंग॥
यह मानव शरीर देखने में सुंदर है, कर्म, उपासना, ज्ञान द्वारा संसार सागर से पार होने की सुंदर नौका है। सत्यासत्य विवेक का महान साधन हे, अपनी विवेक शक्ति की प्रधानता से बड़े-बड़े शरीरधारी ऊंट, हाथी तथा सिंह जैसे बलवान प्राणियों पर भी शासन करता है। लोक-परलोक के आदि, अंत व मध्य का ज्ञाता है। चंद्र व तारों तक पहुँचने वाला तथा चंद्रलोक आदि पर भी शासन करने का साहस रखता है।
This human body is beautiful to look at, it is a beautiful boat to cross the ocean of the world through karma, worship and knowledge. It is a great means of discerning between truth and falsehood. With the supremacy of his discernment power, he rules over even the big creatures like camels, elephants and lions. He knows the beginning, end and middle of this world and the other world. He has the courage to reach the moon and stars and also rule over the moon world etc.
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बाहरी त्याग भी जरूरी रागी पुरुष अर्थात् जिसकी विषय-भोगों में सुख-बुद्धि का पूर्णरूपेण त्याग नहीं हो सकता है उसके मन में वन में भी अनेकों दोष उत्पन्न होते हैं और जो ज्ञानी पुरुष विवेक वैराग्य के बल से, विषय भोगों में, दोष दर्शन व मिथ्यात्व दर्शन द्वारा तुच्छ भाव दृढ निश्चय करके, मन सहित इंद्रियों को वश में करके कर्त्तव्य...
महर्षि दयानन्द की निष्पक्षता महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखा है कि यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ, तथापि जैसे इस देश के मत-मतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देशस्थ व मत वालों के साथ भी वर्तता हूँ। किसी वीतराग संन्यासी के इन शब्दों से यह...
महर्षि दयानन्द ने महिलाओं की शिक्षा पर सदैव बल दिया तथा बाल विवाह का घोर विरोध किया। प्राचीन आर्ष गुरुकुल प्रणाली और शिक्षा पद्धति का गहन अध्ययन व विश्लेषण करके ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चारों आश्रमों के पालन पर बल दिया। उनका सम्पूर्ण जीवन व कृतित्व आध्यात्मिकता से परिपूर्ण था।...
स्वयं से संवाद स्वयं से स्वयं के संवाद की जब स्थितियां नगण्य होती हैं तो नकारात्मकता देखने को मिलती है और भूलें बार-बार दोहरायी जाती हैं। हमेशा आपके आसपास ऐसे ढेरों लोग होते हैं, जो अपनी नकारात्मकता से आपको भ्रमित या भयभीत कर सकते हैं। ऐसे लोग हर युग में हुए हैं और वर्तमान में भी ऐसे लोगों का वर्चस्व बढ ही रहा है।...